गीता भगवद गीता अध्याय 14 श्लोक 1 का अनुवाद:– गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अब मैं तेरे को (ज्ञानानाम्) ज्ञानों में भी (उतमम्) अति उत्तम (परम्) अन्य विशेष (ज्ञानम्) ज्ञान को (भूयः) फिर (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (यत्) जिसको (ज्ञात्वा) जानकर (सर्वे) सब (मुनय) साधक जन (इतः) इस संसार से मुक्त होकर (पराम्) अन्य विशेष (सिद्धिम्) सिद्धि को (गताः) प्राप्त हो गये।
भावार्थ:– गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 9 श्लोक 1-3 में ब्रह्म स्तर का यानि अपने स्तर का उत्तम ज्ञान बताया है तथा सर्व को सब ज्ञानों का राजा कहा है। गीता के इस भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 1-2 में कहा है कि पहले जो सब उत्तम ज्ञान व ज्ञानों के राजा ज्ञान से भी अन्य विशेष उत्तम यानि सर्वश्रेष्ठ अन्य ज्ञान को कहूँगा जिस ज्ञान को जानकर मुनिजन यानि साधक इस काल ब्रह्म के लोक से अन्य विशेष सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं।
गीता भगवद गीता अध्याय 14 श्लोक 2 का अनुवाद:– (इदम्) इस (ज्ञानम्) ज्ञान को (उपाश्रित्य) आश्रय करके (मम) मेरे (साध्म्र्यम्) धर्म यानि गुण का (आगताः) प्राप्त हुए पुरूष यानि परमात्मा जैसे गुणों को भक्ति करके प्राप्त करके अविनाशी धर्म को प्राप्त हुए साधक (सर्गे) सृष्टि में पुनः (न उपजायन्ते) नहीं होते (च) और (प्रलय) प्रलय के समय भी (न व्यथन्ति) व्याकुल नहीं होते।
भावार्थ:– काल ब्रह्म ने कहा है कि इस अन्य विशेष ज्ञान को जानकर साधक परासिद्धि को प्राप्त होते हैं। सूक्ष्मवेद में भी कहा है कि ‘‘परासिद्धि पूर्ण पटरानी अमरलोक की कहूँ निशानी’’ यानि परासिद्धि सतलोक में है। उसे प्राप्त साधक उस अमर लोक में अमर शरीर प्राप्त करता है। वह परमात्मा जैसे अविनाशी धर्मयुक्त हो जाता है। जिस कारण से वह जन्म-मरण से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। उस ज्ञान के आश्रित हुआ साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 1, 2 में भगवान (ब्रह्म) ने कहा कि हे अर्जुन! सर्व ज्ञानों में अति उत्तम (परम्) अन्य ज्ञान को फिर कहूंगा जिसको जान कर सर्व भक्त आत्मा (मुनिजन) अध्याय 13 के श्लोक 34 में कहे गीता ज्ञान दाता से अन्य अर्थात् दूसरे पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो गए। {क्योंकि जिनको पूर्ण ज्ञान हो जाता है वह पूर्ण परमात्मा का मार्ग अपना कर भक्ति करते हैं। ब्रह्म (काल), ब्रह्मा, विष्णु, शिव व देवी-देवताओं की साधना से ऊपर पूर्ण परमात्मा/सतपुरुष की भक्ति करते हैं। इसलिए परम धाम (सतलोक) में चले जाते हैं।} वह पूर्ण ब्रह्म का उपासक साधु गुणों से युक्त होकर प्रभु जैसी शक्ति (गुणों) वाला हो जाता है अर्थात् ब्रह्म के तुल्य हो जाता है तथा सत्य भक्ति पूर्णब्रह्म की करने वाले स्वभाव का हो जाता है, वह अन्य देवों की साधना नहीं करता।
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्मा हुए, अनन्त कोटि हुए ईश (ब्रह्म)।
साहिब तेरी बंदगी (भक्ति) से, जीव हो जावे जगदीश (ब्रह्म)।।
भावार्थ:– जो साधक तत्वदर्शी संत से दीक्षा लेकर भक्ति करते हैं। वे काल ब्रह्म के देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) जैसी शक्ति वाले हो जाते हैं। वे जीव यहाँ के जगदीश के तुल्य हो जाते हैं। यदि ये आशीर्वाद देकर अपनी भक्ति कमाई को नष्ट करना चाहें तो अपने प्रशंसक को बहुत लाभ दे सकते हैं और भगवान प्रसिद्ध हो सकते हैं।
जैसे भगवान कृष्ण तीन लोक के प्रभु (विष्णु अवतार) हैं। वे भगवान से मिलते गुणों वाले हैं। श्री कृष्ण जी ने राजा मोरध्वज के इकलौते पुत्र ताम्रध्वज को आरे से चिरवा कर मरवाया तथा फिर जीवित कर दिया। ये ईश्वरीय गुणों में से एक गुण (सिद्धि) है। इसके कारण (श्री कृष्ण) भी प्रभु हैं परंतु पूर्ण नहीं।
क्योंकि महाभारत के युद्ध में अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु मारा गया था जो श्री कृष्ण जी का भानजा था। श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा का अर्जुन से विवाह हुआ था। अभिमन्यु कृष्ण की बहन सुभद्रा का पुत्र था। भगवान श्री कृष्ण जी उसे जीवित नहीं कर सके। चूंकि ये प्रभु तो हैं परंतु पूर्ण नहीं हैं। इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण के सामने (दुर्वासा के शापवश) भगवान श्री कृष्ण का सर्व यादव कुल नष्ट हो गया। जिसमें भगवान के पुत्र प्रद्युमन, पौत्र अनिरूद्ध आदि आपस में लड़ कर मर गए। भगवान कृष्ण नहीं बचा पाए और एक शिकारी ने प्रभास क्षेत्र में भगवान को तीर मार कर हत्या की। इससे सिद्ध हुआ कि श्री कृष्ण जी भी प्रभु हैं, परंतु पूर्ण परमात्मा नहीं। ये केवल तीन लोक में परमात्मा (श्रेष्ठ आत्मा) हैं।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 3 में हे अर्जुन! मेरी प्रकृति तो योनि (गर्भाधान स्थान है) तथा (अहम् ब्रह्म) मैं ब्रह्म (काल) उसमें गर्भ स्थापन करता हूँ। उससे सर्व प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 4 में कहा है कि हे अर्जुन! सब योनियों में जितनी मूर्ति (शरीरधारी प्राणी) उत्पन्न होती हैं। प्रकृति तो उन सब की गर्भधारण करने वाली माता है और मैं ब्रह्म (काल) उसमें बीज स्थापना करने वाला पिता हूँ।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 5 में कहा है कि हे अर्जुन! सत्वगुण (विष्णु) रजोगुण (ब्रह्मा) तमोगुण (शिव) ये प्रकृति (दुर्गा) से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीव आत्मा को शरीर में बाँधते हैं अर्थात् पूर्ण मुक्ति बाधक हैं।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 6 में कहा है कि उन तीनों गुणों में सतगुण (विष्णु) निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला (यह नकली अनामी लोक काल द्वारा बनाया हुआ) सुखदायक ज्ञान के सम्बन्ध में जीव को बाँधता है। पार नहीं होने देता। चैरासी में डालता है। एक बहुत ही भावुक भक्त आत्मा से मैंने भगवान काल की सृष्टि तथा उसके द्वारा दी जाने वाली चैरासी लाख योनियों में कष्ट तथा एक लाख प्राणियों का काल द्वारा प्रतिदिन भक्षण करना समझाया तथा आगे सतलोक व परम गति का मार्ग बताया। नहीं तो आपको व सर्व देवताओं को काल खाएगा। इस पर उस पुण्य आत्मा ने कहा कि मैं तो बिल्कुल सतलोक नहीं जाऊँगा। चूंकि यदि मैं सतलोक चला गया तो भगवान की भूख कौन बुझाएगा? यहाँ पर वह प्राणी सतगुण प्रधान है जो उसके सतमार्ग का बाधक बन गया। विवेक बिना सतगुणी उदारात्मा होने पर भी काल के जाल से नहीं बच पाती।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 7 में कहा है कि हे अर्जुन! राग-रूप रजोगुण (ब्रह्मा) भी जीव को कर्म तथा उसके फल भोग की कामना के कारण बाँधे रखता है अर्थात् मुक्त नहीं होने देता। विषयों के भोगों के कारण मौज करने के वश हो कर काल जाल से नहीं निकल पाता।
एक समय मार्कण्डेय ऋषि ने इन्द्र जी (स्वर्ग के राजा) से कहा कि आपको मालूम भी है कि इन्द्र का राज भोगकर गधे की जूनी में जाओगे। इसलिए इस इन्द्र के राज को त्याग कर ब्रह्म का भजन कर। तेरा चैरासी से पीछा छूट जाएगा। इस पर इन्द्र जी ने कहा कि फिर कभी देखेंगे। अब तो मौज मनाने दो ऋषि जी।
विचार करें:— फिर कब देखेंगे? क्या गधा बनने के बाद? फिर तो गधे को कुम्हार देखेगा।
एक क्विंटल वजन कमर पर, ऊपर से डण्डा लगेगा। ज्ञान होते हुए भी रजोगुणवश प्राणी भी काल जाल से मुक्त नहीं हो पाता।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 8 का अनुवाद: हे अर्जुन! सब शरीर धारियोंको मोहित करनेवाले तमोगुणको तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्माको प्रमाद आलस्य और निंद्राके द्वारा बाँधता है।
लंकापति राजा रावण ने भगवान शिव (तमगुण) की कठिन साधना व भक्ति की। यहाँ तक कि उसने अपने शरीर को भी काट कर समर्पित कर दिया। उसके बदले में भगवान शिव ने रावण को दश सिर व बीस भुजा प्रदान की। जब रावण को श्री राम ने मारा तो दश बार सिर काटे थे। रावण की भक्ति के परिणाम स्वरूप उसे फिर दश बार सिर वापिस लगे थे अर्थात् दश बार गर्दन कटने पर भी मरा नहीं। फिर गर्दन नई लग जाती थी। परंतु तमोगुण (अहंकार) समाप्त नहीं हुआ जिससे इतना अज्ञानी (अंधा) हो गया कि अपनी ही माता (जगत जननी) सीता का अपहरण कर लिया। तमोगुण ने उसका ज्ञान हर लिया तथा सर्वनाश को प्राप्त हुआ। यह तमगुण (शिव शंकर) की साधना का परिणाम है। गीता जी में भगवान ब्रह्म (काल) बताना चाहते हैं कि इन तीनों गुणों की भक्ति से भी जीव पार नहीं हो सकता। इससे अच्छी तो मेरी (ब्रह्म) साधना है परंतु यह भी पूर्ण मुक्तिदायक नहीं है। वह घटिया मुक्ति भगवान ब्रह्म (काल) ने स्वयं अध्याय 7 श्लोक 18 में कही है।
भगवद गीता अध्याय 14 श्लोक 9 में कहा है कि हे अर्जुन (भारत)! सतगुण सुख में लगाता है तथा रजोगुण कर्म में और तमोगुण ज्ञान को ढ़ककर प्रमाद (उल्ट मार्ग) में भी लगाता है।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 10 से 17 तक कहा है कि एक गुण दूसरे को दबाकर अपना प्रभाव प्राणी पर बनाए रखता है।
एक भला व्यक्ति (जिसका सतगुण बढ़ा हुआ था तथा अन्य दोनों गुण दबे हुए थे) सतगुणी भाव से किसी लावारिस (जिसका कोई नाती जीवित नहीं था) रोगी को यह कहकर घर ले आया कि मैं आप की सेवा भी करूंगा तथा आपका ईलाज भी कराऊँगा। आप मुझे अपना पुत्र ही समझो। घर लाकर रजोगुण के बढ़ जाने पर (दोनों गुण दबे रहने पर) बढ़िया कपड़े सिलवाए, ईलाज करवाना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन उस रोगी ने उसके पत्थर के फर्श पर थूक दिया। उस दिन उठाकर उस रोगी को घर से बाहर पटक दिया। तब तमोगुण बढ़ा हुआ था, दोनों गुण दबे हुए थे।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 18 में कहा है कि सतगुण में स्थित (अर्थात् विष्णु उपासक) स्वर्ग आदि उच्च लोकों में चला जाता है। फिर जन्म-मरण, नरक, चैरासी लाख योनियों में चला जाता है। रजगुण उपासक (ब्रह्मा का साधक) मनुष्य लोक (पृथ्वी लोक) पर मनुष्य का एक आध जन्म प्राप्त कर फिर नरक व चैरासी लाख जूनियों में चला जाता है। तमगुण प्रधान (शिव उपासक) अधोगति (नरक तथा लख चैरासी जूनियों) को सीधा प्राप्त होता है।
भगवद गीता अध्याय 14 श्लोक 19 का अनुवाद:– काल ब्रह्म ने कहा है कि (यदा) जब यानि जिस स्थिति में (दृष्टा) ज्ञान की आँखों से देखने वाला अल्प ज्ञान के कारण (गुणेभ्यः) तीनों गुणों यानि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव के अतिरिक्त (अन्य कर्तरम्) अन्य कोई कर्ता (न) नहीं (अनुपश्यति) देखता यानि इन तीनों देवों से ऊपर कोई परमात्मा स्वीकार नहीं करता (च) तथा किसी से सुनकर (गुणेभ्य) तीनों गुण रूप ब्रह्मा रजगुण, विष्णु सतगुण तथा शिव तमगुण से (परम् वेति) अन्य परम अक्षर ब्रह्म को भी जानता है। (सः) वह (मत् भावम्) मेरे भाव को (अधिगच्छति) प्राप्त होता है।
भावार्थ:– काल ब्रह्म ने स्पष्ट किया है कि जिसको पूर्ण ज्ञान नहीं है, वह श्री ब्रह्मा रजगुण, श्री विष्णु सतगुण तथा श्री शिव तमगुण के अतिरिक्त किसी को सृष्टि का कर्ता नहीं जानता। यदि किसी तत्वदर्शी संत से इनसे अन्य परम दिव्य परमात्मा के विषय में जान लेता है तो वह मुझे ही परम अक्षर ब्रह्म मानकर मेरे भाव को प्राप्त करता है यानि वह भी मेरे ही जाल में रह जाता है। भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 19 में वर्णन है कि इस सर्व ज्ञान को तत्व से जान कर तीन गुणों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) के अतिरिक्त किसी अन्य को कत्र्ता नहीं जानता। इन गुणों से (परम) अन्य परम अक्षर ब्रह्म को भी जानता है। वह मेरे मतावलम्बी भाव को प्राप्त होता है अर्थात् वह साधक अध्याय 13 में दिए मत (विचारों) का अनुसरण करने वाला है। उसे मत-भावम् (मद्भावम्) कहा जाता है (अध्याय 3 के श्लोक नं. 31,32 में अपना मत कहा है) तथा मेरे जाल में रह जाता है।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 20 में कहा है कि वह जीवात्मा इस शरीर (दुःख की जड़) की उत्पत्ति अर्थात् जन्म-मरण का कारण गुणों को समझ लेता है तथा वह तीनों गुणों को उल्लंघन कर अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भक्ति छोड़ कर, जन्म-मरण, बुढापा व सर्व दुःखों से मुक्त होकर (पूर्ण मुक्ति पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके) परमानन्द को प्राप्त हो जाता है।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 21 में अर्जुन ने प्रश्न किया है कि हे भगवन! इन तीनों गुणों से अतीत हुए भक्त के क्या लक्षण होते हैं? तथा कैसे आचरण वाला होता है? कैसे इन तीनों गुणों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) से अतीत (परे) होता है?
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 22 से 25 में कहा है कि जो भक्त किसी देव की महिमात्मक प्रशंसा सुन कर उस पर आसक्त नहीं होता क्योंकि उसे पूर्ण ज्ञान है कि यह देव (गुण) केवल इतनी ही महिमा रखता है जो जीव के उद्धार के लिए पर्याप्त नहीं है। जैसे भगवान कृष्ण (विष्णु-सतगुण) ने कंश-केशि, शिशुपाल आदि मारे तथा सुदामा को धन दे दिया। आम जीव के कल्याण के लिए पर्याप्त नहीं है। क्योंकि भगवान विष्णु (सतगुण) का उपासक केवल स्वर्ग आदि उत्तम लोकों में जा सकता है। फिर चैरासी लाख जूनियों का संकट बना रहेगा। इसलिए वह साधक अपने विचार स्थिर रखता है तथा अपना स्वभाव मोह वश नहीं बदलता और न ही उन देवों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) से द्वेष करता। न ही उनकी आकांक्षा (इच्छा) करता जो उनकी शक्ति से परिचित है, उनको वहीं तक समझता है तथा अविचलित स्थित एक रस इनसे भी परे परमात्मा में लीन रहता है तथा सुख-दुःख, मिट्टी-सोना, प्रिय-अप्रिय, निन्दा-स्तुति में सम भाव में रहता है। मान-अपमान, मित्र-वैरी को समान समझता है तथा सर्व प्रथम अभिमान का त्याग करता है। वह (भक्त) गुणातीत कहा जाता है।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 26 में कहा है कि – और जो (भक्त) अव्याभिचारिणी भक्ति योग के द्वारा अर्थात् केवल एक इष्ट की साधना (अन्य देवी-देवताओं, भूतों-पित्रों तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव की पूजा त्याग कर) करता है वह आत्मा अव्याभिचारी है। जैसे कोई स्त्री अपने पति के साथ-2 अन्य पुरुष का संग करती है वह व्याभिचारिणी स्त्री कहलाती है जो अपने एक पति पर आश्रित नहीं हुई। इसलिए व्याभिचारी भक्त हैं जो एक इष्ट पर आधारित नहीं हैं।, जो अनन्य मन से (केवल एक इष्ट की आशा से) भक्ति करते हैं और जो एक इष्ट पर आधारित हैं वे अव्याभिचारिणी भक्ति करने वाले कहे हैं।
ऐसा भक्त केवल मुझे (काल-ब्रह्म को एक अक्षर ऊँ मन्त्र से) भजता है। वह साधक तीनों गुणों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) की भक्ति त्याग कर जो काल (ब्रह्म) को अनन्य मन से केवल ऊँ मन्त्र से भजता है, वह साधक उस पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म, परम अविनाशी भगवान) को प्राप्त होने के योग्य होता है क्योंकि पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने की साधना में तीन नामों में प्रथम ॐ नाम भी है।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 27 में ब्रह्म काल कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा के अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत् धर्म का और एकान्तिक सुख की पहली अवस्था (प्रतिष्ठा) मैं ही हूँ। यह काल ही सत्यनाम उपासक भक्त को पार होने के लिए अपना सिर झुका कर रास्ता देता है। तब कबीर हंस उस काल के सिर पर पैर रख कर सतलोक जाता है। काल ने कबीर साहेब से कहा है कि – ‘‘जो भी भक्त होवै तुम्हारा। मम सिर पग दे होवै पारा।।‘‘
गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ओं-तत्-सत् इस तीन मन्त्र के जाप से पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति कही है।
1) क्षर यह काल ब्रह्म है, इसका ओम् (ॐ) नाम है।
2) अक्षर अर्थात् परब्रह्म है। इसका तत् जो सांकेतिक मन्त्र है।
3) परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्णब्रह्म है। इसका सत् मन्त्र है जो सांकेतिक है।
पहली प्रतिष्ठा अर्थात् अवस्था ब्रह्म है। ब्रह्म लोक को पार करके परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का लोक आता है। जब कबीर साहेब का उपासक हंस सतलोक जाता है तो पहली अवस्था (प्रतिष्ठा) काल ब्रह्म के लोक को पार करना है। यह प्रथम अवस्था भी तब होगी जब¨ऊँ मन्त्र का जाप काल के दुःख को ध्यान में रखते हुए करता है। जैसे सतनाम में (क्षर-ब्रह्म का मन्त्र ऊँ है तथा अक्षर पुरुष/परब्रह्म का मन्त्र सोहं) दोनों मन्त्रों का श्वांसों द्वारा जाप करना होता है। पूर्ण गुरु से ले कर ऊँ मन्त्र का जाप काल के ऋण से मुक्त करता है। तब काल (ब्रह्म) अपनी हद (21 ब्रह्मण्ड) से स्वयं अपने सिर पर पैर रखवा कर परब्रह्म लोक में जाने देता है। क्योंकि जिस भक्त आत्मा के पास सतनाम के साथ सार नाम भी है तथा वह अंतिम श्वांस तक गुरुदेव जी की शरण में रहता है उसमें इतनी भक्ति शक्ति हो जाती है कि काल (क्षर/ब्रह्म/ज्योति निरंजन) विवश हो जाता है तथा उस हंस के सामने अपना सिर झुका देता है। फिर वह भक्त उसके सिर पर पैर रख कर परब्रह्म लोक में चला जाता है। यह पहली प्रतिष्ठा (अवस्था) हुई।
दूसरी अवस्था (प्रतिष्ठा) है कि परब्रह्म के अर्थात् अक्षर पुरुष के लोक को पार करना है। यह दूसरी अवस्था (प्रतिष्ठा) है। उसके लिए अक्षर पुरुष का जाप सोहं मन्त्र है। यदि इसके साथ सार नाम नहीं मिला तो भी अधूरा काम है। सोहं मन्त्र का जाप का अभ्यास अधिक हो जाने पर सारनाम दिया जाता है। सारनाम के जाप के अभ्यास की कमाई की शक्ति से परब्रह्म का लोक पार हो जाता है। क्योंकि सोहं मन्त्र के जाप अभ्यास (कमाई) से परब्रह्म का यात्रा ऋण मुक्त हो जाता है। अक्षर पुरुष के लोक को पार करने के बाद सोहं मन्त्र भी नहीं रहता। फिर केवल सारनाम सुरति निरति का जाप है। जिसको सार शब्द गुरु जी से प्राप्त हो गया, वह सार शब्द प्राप्त हंस उस शब्द की कमाई से उत्पन्न ध्वनि के आधार पर सतलोक में अपने सही स्थान पर चला जाता है। (जो ध्वनि शरीर में सुनती है, यह तो काल जाल ही है) यह तीसरी अवस्था (प्रतिष्ठा) हुई। यहाँ पर पूर्ण मुक्त हंस रहते हैं।
भगवद गीता अध्याय 14 के श्लोक 27 में ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ने कहा है कि उस पूर्ण परमात्मा के सच्चे आनन्द को प्राप्त कराने में मैं (काल) ही प्रतिष्ठा अर्थात् आश्रय हूँ का साधारण सा भाव पाठक इस प्रकार समझे कि जैसे किसी ने डोमिसाईल (प्रमाण पत्र) बनवाना हो तो उसका प्रथम प्रतिष्ठा (अवस्था) पटवारी होता है। वह लिख कर देता है कि यह इस क्षेत्र तथा गाँव का रहने वाला है परंतु डोमिसाईल बनाने वाला अन्य उच्च अधिकारी होता है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने में काल भगवान पहली प्रतिष्ठा है।
© Bhagavad Gita. 2024. Design HTML Codex