विशेष:- अर्जुन ने पूछा कि हे भगवन! शास्त्र विधि को त्याग कर साधना करने वालों अर्थात् तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) तथा इनसे भी नीचे भूत-पितर, यज्ञ, भैरव आदि की साधना करने वालों का स्वभाव कैसा होता है?
(अर्जुन उवाच)
ये, शास्त्रविधिम्, उत्सृृज्य, यजन्ते, श्रद्धया, अन्विताः,
तेषाम्, निष्ठा, तु, का, कृष्ण, सत्त्वम्, आहो, रजः, तमः।।1।।
अनुवाद: (कृष्ण) हे कृृष्ण! (ये) जो मनुष्य (शास्त्रविधिम्) शास्त्रविधिको (उत्सृृज्य) त्यागकर (श्रद्धया) श्रद्धासे (अन्विताः) युक्त हुए (यजन्ते) देवादिका पूजन करते है (तेषाम्) उनकी (निष्ठा) स्थिति (तु) फिर (का) कौन-सी (सत्त्वम्) सात्विकी है (आहो) अथवा (रजः) राजसी (तमः) तामसी? (1)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रविधिको त्यागकर श्रद्धासे युक्त हुए देवादिका पूजन करते है उनकी स्थिति फिर कौन-सी सात्विकी है अथवा राजसी तामसी? (1)
विशेष:- अध्याय 17 श्लोक 2 से 22 तक उन शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् अपने-अपने स्वभाववश साधना करने वाले साधकों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक पूजाओं का वर्णन है जिसको गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ कहा है। इसी लिए अर्जुन ने उपरोक्त इसी अध्याय 17 के श्लोक 1 में पूछा है, उसी का उत्तर देते हुए प्रभु ने कहा है कि जिस साधक का पिछले मनुष्य जीवन में जैसा स्वभाव था उसी का प्रभाव कभी फिर मनुष्य जन्म प्राप्त होता है वह उसी भाव में भावित रहता है। समझाने से भी नहीं मानता, उसे राक्षस स्वभाव के जान। ऐसे साधकों का विवरण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तक पूर्ण व्याख्या के साथ कहा है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 5-6 में स्पष्ट किया है। इस अध्याय 17 के श्लोक 2 से 22 तक भले ही एक-दूसरे की तुलना का विवरण कहा है फिर भी शास्त्र विधि रहित ही है। जिस कारण श्रेयकर नहीं है। इस अध्याय 17 श्लोक 23 से अन्तिम 28 तक पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का विवरण है, जिसके लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 व अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में विशेष प्रमाण है।
(भगवान उवाच)
त्रिविधा, भवति, श्रद्धा, देहिनाम्, सा, स्वभावजा,
सात्त्विकी, राजसी, च, एव, तामसी, च, इति, ताम्, श्रृृणु।।2।।
अनुवाद: (देहिनाम्) मनुष्योंकी (सा) वह (स्वभावजा) स्वभावसे उत्पन्न (श्रद्धा) श्रद्धा (सात्त्विकी) सात्विकी (च) और (राजसी) राजसी (च) तथा (तामसी) तामसी (इति) ऐसे (त्रिविधा) तीनों प्रकारकी (एव) ही (भवति) होती है। (ताम्) उस अज्ञान अंधकार रूप जंजाल को (श्रृणु) सुन। (2)
केवल हिन्दी अनुवाद: मनुष्योंकी वह स्वभावसे उत्पन्न श्रद्धा सात्विकी और राजसी तथा तामसी ऐसे तीनों प्रकारकी ही होती है। उस अज्ञान अंधकार रूप जंजाल को सुन। (2)
सत्त्वानुरूपा, सर्वस्य, श्रद्धा, भवति, भारत्,
श्रद्धामयः, अयम्, पुरुषः, यः, यच्छ्रद्धः, सः, एव, सः।।3।।
अनुवाद: (भारत्) हे भारत!(सर्वस्य) सभी की (श्रद्धा) श्रद्धा (सत्त्वानुरूपा) उनके अन्तःकरणके अनुरूप (भवति) होती है। (अयम्) यह (पुरुषः) व्यक्ति (श्रद्धामयः) श्रद्धामय है इसलिये (यः) जो पुरुष (यच्छ्रद्धः) जैसी श्रद्धावाला है, (सः) वह स्वयं (एव) वास्तव में (सः) वही है। (3)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे भारत! सभी की श्रद्धा उनके अन्तःकरणके अनुरूप होती है। यह व्यक्ति श्रद्धामय है इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं वास्तव में वही है। (3)
यजन्ते, सात्त्विकाः, देवान्, यक्षरक्षांसि, राजसाः,
प्रेतान्, भूतगणान्, च, अन्ये, यजन्ते, तामसाः, जनाः।।4।।
अनुवाद: (सात्त्विकाः) सात्विक पुरुष (देवान्) श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी आदि देवताओं को (यजन्ते) पूजते हैं, (राजसाः) राजस पुरुष (यक्षरक्षांसि) यक्ष और राक्षसोंको तथा (अन्ये) अन्य जो (तामसाः) तामस (जनाः) मनुष्य हैं वे (प्रेतान्) प्रेत (च) और (भूतगणान्) भूतगणोंको (यजन्ते) पूजते हैं तथा मुख्य रूप से श्री शिव जी को भी इष्ट मानते हैं। (4)
केवल हिन्दी अनुवाद: सात्विक पुरुष श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी आदि देवताओं को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसोंको तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं वे प्रेत और भूतगणोंको पूजते हैं तथा मुख्य रूप से श्री शिव जी को भी इष्ट मानते हैं। (4)
अशास्त्रविहितम्, घोरम्, तप्यन्ते, ये, तपः, जनाः,
दम्भाहंकारसंयुक्ताः, कामरागबलान्विताः।।5।।
अनुवाद: (ये) जो (जनाः) मनुष्य (अशास्त्रविहितम्) शास्त्रविधिसे रहित केवल मन माना (घोरम्) घोर (तपः) तपको (तप्यन्ते) तपते हैं तथा (दम्भाहंकारसंयुक्ताः) पाखण्ड और अहंकारसे युक्त एवं (कामरागबलान्विताः) कामना के आसक्ति और भक्ति बलके अभिमानसे भी युक्त हैं। (5)
केवल हिन्दी अनुवाद: जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित केवल मन माना घोर तपको तपते हैं तथा पाखण्ड और अहंकारसे युक्त एवं कामना के आसक्ति और भक्ति बलके अभिमानसे भी युक्त हैं। (5)
कर्शयन्तः, शरीरस्थम्, भूतग्रामम्, अचेतसः, माम्,
च, एव, अन्तःशरीरस्थम्, तान्, विद्धि, आसुरनिश्चयान्।।6।।
अनुवाद: (शरीरस्थम्) शरीर में रहने वाले (भूतग्रामम्) प्राणियों के मुखिया - ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा गणेश व प्रकृति को व (माम्) मुझे (च) तथा (एव)इसी प्रकार (अन्तःशरीरस्थम्) शरीर के हृदय कमल में जीव के साथ रहने वाले पूर्ण परमात्मा को (कर्शयन्तः) परेशान करने वाले (तान्) उनको (अचेतसः) अज्ञानियोंको (आसुरनिश्चयान्) राक्षसस्वभाववाले (एव) ही (विद्धि) जान। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 तथा अध्याय 18 श्लोक 61 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा विशेष रूप से सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। (6)
केवल हिन्दी अनुवाद: शरीर में रहने वाले प्राणियों के मुखिया - ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा गणेश व प्रकृृति को व मुझे तथा इसी प्रकार शरीर के हृदय कमल में जीव के साथ रहने वाले पूर्ण परमात्मा को परेशान करने वाले उनको अज्ञानियोंको राक्षसस्वभाववाले ही जान। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 तथा अध्याय 18 श्लोक 61 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा विशेष रूप से सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। (6)
आहारः, तु, अपि, सर्वस्य, त्रिविधः, भवति, प्रियः,
यज्ञः, तपः, तथा, दानम्, तेषाम्, भेदम्, इमम्, श्रृणु।।7।।
अनुवाद: (आहारः) भोजन (अपि) भी (सर्वस्य) सबको अपनी अपनी प्रकृृतिके अनुसार (त्रिविधः) तीन प्रकारका (प्रियः) प्रिय (भवति) होता है (तु) इसलिए (तथा) वैसे ही (यज्ञः) यज्ञ (तपः) तप और (दानम्) दान भी तीन-तीन प्रकारके होते हैं (तेषाम्) उनके (इमम्) इस (भेदम्) भेदको तू मुझसे (श्रृणु) सुन। (7)
केवल हिन्दी अनुवाद: भोजन भी सबको अपनी अपनी प्रकृतिके अनुसार तीन प्रकारका प्रिय होता है इसलिए वैसे ही यज्ञ तप और दान भी तीन-तीन प्रकारके होते हैं उनके इस भेदको तू मुझसे सुन। (7)
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः, रस्याः,
स्निग्धाः, स्थिराः, हृद्याः, आहाराः, सात्त्विकप्रियाः।।8।।
अनुवाद: (आयुःसत्त्वबल आरोग्य सुखप्रीति विवर्धनाः) आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीतिको बढ़ानेवाले (रस्याः) रसयुक्त (स्निग्धाः) चिकने और (स्थिराः) स्थिर रहनेवाले तथा (हृद्याः) स्वभावसेही मनको प्रिय ऐसे (आहाराः) आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ (सात्त्विकप्रियाः) सतोगुण प्रधान अर्थात् विष्णु के उपासक को जिनका विष्णु उपास्य देव है। उनको ऊपर लिखे आहार करना पसंद होते हैं। (8)
केवल हिन्दी अनुवाद: आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीतिको बढ़ानेवाले रसयुक्त चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभावसेही मनको प्रिय ऐसे आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ सतोगुण प्रधान अर्थात् विष्णु के उपासक को जिनका विष्णु उपास्य देव है। उनको ऊपर लिखे आहार करना पसंद होते हैं। (8)
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः,
आहाराः, राजसस्य, इष्टाः, दुःखशोकामयप्रदाः।।9।।
अनुवाद: (कटुअम्ल लवण अत्युष्ण तीक्ष्ण रूक्ष विदाहिनः) कडुवे, खट्टे, लवणयुक्त बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और (दुःखशोक आमयप्रदाः) दुःख चिन्ता तथा रोगोंको उत्पन्न करनेवाले (आहाराः) आहार (राजसस्य) राजस पुरुषको (इष्टाः) रजोगुण प्रधान अर्थात् जिनका ब्रह्मा उपास्य देव है उनको ऊपर लिखे आहार स्वीकार होते हैं। क्योंकि हिरणाकशिपु राक्षस ने ब्रह्मा की उपासना की थी। (9)
केवल अनुवाद: कडुवे, खट्टे, लवणयुक्त बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख चिन्ता तथा रोगोंको उत्पन्न करनेवाले आहार राजस पुरुषको रजोगुण प्रधान अर्थात् जिनका ब्रह्मा उपास्य देव है उनको ऊपर लिखे आहार स्वीकार होते हैं। क्योंकि हिरणाकशिपु राक्षस ने ब्रह्मा की उपासना की थी। (9)
यातयामम्, गतरसम्, पूति, पर्युषितम्, च, यत्,
उच्छिष्टम्, अपि, च अमेध्यम्, भोजनम्, तामसप्रियम्।।10।।
अनुवाद: (यत्) जो (भोजनम्) भोजन (यातयामम्) अधपका (गतरसम्) रसरहित (पूति) दुर्गन्धयुक्त (पर्युषितम्) बासी (च) और (उच्छिष्टम्) उच्छिष्ट है (च) तथा जो (अमेध्यम्) अपवित्र (अपि) भी है वह भोजन (तामसप्रियम्) तामस पुरुषको प्रिय होता है। तमोगुण प्रधान व्यक्तियों का उपास्य देव शिव है तथा वे उनसे निम्न स्तर के भूत प्रेतों को पूजते हैं उनको आहार ऊपर लिखित पसंद होता है। (10)
केवल हिन्दी अनुवाद: जो भोजन अधपका रसरहित दुर्गन्धयुक्त बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है वह भोजन तामस पुरुषको प्रिय होता है। तमोगुण प्रधान व्यक्तियों का उपास्य देव शिव है तथा वे उनसे निम्न स्तर के भूत प्रेतों को पूजते हैं उनको आहार ऊपर लिखित पसंद होता है। (10)
{इस श्लोक 11 में शास्त्र विधि अनुसार पूर्ण संत से तीन मंत्र का जाप (जिनमें एक ओ3म नाम है तथा तत् - सत् सांकेतिक हैं) प्राप्त करके पाँचों यज्ञादि भी प्रतिफल इच्छा न करके करनी चाहियें, अन्यथा इच्छा रूपी की गई यज्ञ का फल पूर्ण नहीं है।}
अफलाकाङ्क्षिभिः, यज्ञः, विधिदृष्टः, यः, इज्यते,
यष्टव्यम्, एव, इति, मनः, समाधाय, सः, सात्त्विकः।।11।।
अनुवाद: (यः) जो (विधिदृष्टः) शास्त्रविधिसे नियत (यज्ञः) यज्ञ (यष्टव्यम्, एव) करना ही कर्तव्य है (इति) इस प्रकार (मनः) मनको (समाधाय) समाधान करके (अफलाकाङ्क्षिभिः) फल न चाहनेवाले पुरुषोंद्वारा (इज्यते) किया जाता है (सः) वह (सात्त्विकः) सात्विक है। (11)
केवल हिन्दी अनुवाद: जो शास्त्रविधिसे नियत यज्ञ करना ही कर्तव्य है इस प्रकार मनको समाधान करके फल न चाहनेवाले पुरुषोंद्वारा किया जाता है वह सात्विक है। (11)
विशेष:- भले ही उपरोक्त श्लोक 11 में सात्विक यज्ञ का वर्णन भेद विधान अनुसार कहा है परन्तु गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिले बिना यह सात्विक साधना भी व्यर्थ है क्योंकि अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने वालों के विषय में पूछा है जिसको गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ बताया है। इसलिए यहाँ केवल स्वभाववश मनमाना आचरण करने वालों का ही विवरण चल रहा है। यह साधना भी व्यर्थ है।
अभिसन्धाय, तु, फलम्, दम्भार्थम्, अपि, च, एव, यत्,
इज्यते, भरतश्रेष्ठ, तम्, यज्ञम्, विद्धि, राजसम्।।12।।
अनुवाद: (तु) परंतु (भरतश्रेष्ठ) हे अर्जुन! (दम्भार्थम्, एव) केवल दम्भाचरण के ही लिये (च) अथवा (फलम्) फलको (अपि) भी (अभिसन्धाय) दृृष्टिमें रखकर (यत्) जो यज्ञ (इज्यते) किया जाता है (तम्) अंधेरे वाले नरक में ले जाने वाली (यज्ञम्) यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान को (राजसम्) राजस (विद्धि) जान। (12)
केवल हिन्दी अनुवाद: परंतु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के ही लिये अथवा फलको भी दृष्टिमें रखकर जो यज्ञ किया जाता है अंधेरे वाले नरक में ले जाने वाली यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान को राजस जान। (12)
विधिहीनम्, असृृष्टान्नम्, मन्त्रहीनम्, अदक्षिणम्,
श्रद्धाविरहितम्, यज्ञम्, तामसम्, परिचक्षते।।13।।
अनुवाद: (विधिहीनम्) शास्त्रविधिसे रहित (असृष्टान्नम्) अन्नदानसे रहित (मन्त्रहीनम्) बिना वास्तवकि मन्त्रोंके (अदक्षिणम्) बिना दक्षिणा के, बिना दीक्षा-उपदेश लिए और (श्रद्धाविरहितम्) बिना श्रद्धाके किये जानेवाले (यज्ञम्) अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान को (तामसम्) तामस यज्ञ (परिचक्षते) कहते हैं। (13)
केवल हिन्दी अनुवाद: शास्त्रविधिसे रहित अन्नदानसे रहित बिना वास्तवकि मन्त्रोंके बिना दक्षिणा के, बिना दीक्षा-उपदेश लिए और बिना श्रद्धाके किये जानेवाले अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान को तामस यज्ञ कहते हैं। (13)
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्, शौचम्, आर्जवम्,
ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा, च, शारीरम्, तपः, उच्यते।।14।।
अनुवाद: (देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्) दैवी वृृति वाले व्यक्ति अर्थात संत, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनोंका आदर (शौचम्) पवित्रता (आर्जवम्) आधीनी (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य (च) और (अहिंसा) अहिंसा यह (शारीरम्) शरीरसम्बन्धी (तपः) तप (उच्यते) कहा जाता है। परन्तु सर्व शास्त्र विधि रहित है जिस कारण से व्यर्थ साधना है। क्योंकि गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने को व्यर्थ बताया है। (14)
केवल हिन्दी अनुवाद: दैवी वृति वाले व्यक्ति अर्थात संत, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनोंका आदर पवित्रता आधीनी ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है। परन्तु सर्व शास्त्र विधि रहित है जिस कारण से व्यर्थ साधना है। क्योंकि गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने को व्यर्थ बताया है। (14)
अनुद्वेगकरम्, वाक्यम्, सत्यम्, प्रियहितम्, च, यत्,
स्वाध्यायाभ्यसनम्, च, एव, वाङ्मयम्, तपः, उच्यते।।15।।
अनुवाद: (यत्) जो (अनुद्वेगकरम्) उद्वेग न करनेवाला (प्रियहितम्) प्रिय और हितकारक (च) एवं (सत्यम्) यथार्थ (वाक्यम्) भाषण है (च) तथा जो (स्वाध्याय अभ्यसनम्) धार्मिक-शास्त्रोंके पठनका एवं परमेश्वरके नाम जापका अभ्यास (एव) ही (वाङ्मयम्) वाणीसम्बन्धी (तपः) तप (उच्यते) कहा जाता है। (15)
केवल हिन्दी अनुवाद: जो उद्वेग न करनेवाला प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो धार्मिक-शास्त्रोंके पठनका एवं परमेश्वरके नाम जापका अभ्यास ही वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है। (15)
मनः प्रसादः, सौम्यत्वम्, मौनम्, आत्मविनिग्रहः,
भावसंशुद्धिः, इति, एतत्, तपः, मानसम्, उच्यते।।16।।
अनुवाद: (मनःप्रसादः) मनकी प्रसन्नता (सौम्यत्वम्) शान्तभाव (मौनम्) भगवान की चर्चा के ईलावा अन्य सांसारिक बातों में चुपी (आत्मविनिग्रहः) प्रत्येक विचार का निग्रह और (भावसंशुद्धिः) भावोंकी भलीभाँति पवित्रता (इति) इस प्रकार (एतत्) यह (मानसम्) मन सम्बन्धी (तपः) तप (उच्यते) कहा जाता है। (16)
केवल हिन्दी अनुवाद: मनकी प्रसन्नता शान्तभाव भगवान की चर्चा के ईलावा अन्य सांसारिक बातों में चुपी प्रत्येक विचार का निग्रह और भावोंकी भलीभाँति पवित्रता इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है। (16)
श्रद्धया, परया, तप्तम्, तपः, तत्, त्रिविधम्, नरैः,
अफलाकाङ्क्षिभिः, युक्तैः, सात्त्विकम्, परिचक्षते।।17।।
अनुवाद: (अफलाकाङ्क्षिभिः) फलको न चाहनेवाले (युक्तैः) शास्त्रविधि अनुसार भक्ति में लीन (नरैः) पुरुषोंद्वारा (परया) परम (श्रद्धया) श्रद्धासे (तप्तम्) तपे हुए (तत्) उस पूर्वोक्त (त्रिविधम्) तीन प्रकारके (तपः) तपको (सात्त्विकम्) सात्विक (परिचक्षते) कहते हैं। (17)
केवल हिन्दी अनुवाद: फलको न चाहनेवाले शास्त्रविधि अनुसार भक्ति में लीन पुरुषोंद्वारा परम श्रद्धासे तपे हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकारके तपको सात्विक कहते हैं। (17)
सत्कारमानपूजार्थम्, तपः, दम्भेन, च, एव, यत्,
क्रियते, तत्, इह, प्रोक्तम्, राजसम्, चलम्, अध्रुवम्।।18।।
अनुवाद: (यत्) जो (तपः) तप (सत्कारमानपूजार्थम्) सत्कार मान रूपी पूजाके लिये (एव) ही (च) और (दम्भेन) पाखण्डसे (क्रियते) किया जाता है (तत्) वह (अध्रुवम्) अस्थाई (चलम्) नाशवान तप (इह) यहाँ (राजसम्)राजस (प्रोक्तम्)कहा गया है। (18)
केवल हिन्दी अनुवाद: जो तप सत्कार मान रूपी पूजाके लिये ही और पाखण्ड से किया जाता है वह अस्थाई नाशवान तप यहाँ राजस कहा गया है। (18)
मूढग्राहेण, आत्मनः, यत्, पीडया, क्रियते, तपः,
परस्य, उत्सादनार्थम्, वा, तत्, तामसम्, उदाहृतम्।।19।।
अनुवाद: (यत्) जो (तपः) तप (मूढग्राहेण) मूढतापूर्वक हठसे (आत्मनः)अपने मन, वाणी और शरीरकी (पीडया) पीड़ाके सहित (वा) अथवा (परस्य) दूसरेका (उत्सादनार्थम्) अनिष्ट करनेके लिये (क्रियते) किया जाता है (तत्) वह तप (तामसम्) तामस (उदाहृतम्) कहा गया है। (इसी का प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 6 में भी है।) (19)
केवल हिन्दी अनुवाद: जो तप मूढतापूर्वक हठसे अपने मन, वाणी और शरीरकी पीड़ाके सहित अथवा दूसरेका अनिष्ट करनेके लिये किया जाता है वह तप तामस कहा गया है। (इसी का प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 6 में भी है।) (19)
दातव्यम्, इति, यत्, दानम्, दीयते, अनुपकारिणे,
देशे, काले, च, पात्रो, च, तत्, दानम्, सात्त्विकम्, स्मृतम्।।20।।
अनुवाद: (दातव्यम्) दान देना ही कर्तव्य है (इति) ऐसे भावसे (यत्) जो (दानम्) दान (देशे च काले) समय और स्थिति (च) और (पात्रेा) दान देने योग्य व्यक्ति के प्राप्त होने पर (अनुपकारिणे) उसके बदले में अपनी भलाई अर्थात् फल की इच्छा न रखते हुए (दीयते) दिया जाता है (तत्) वह (दानम्) दान (सात्त्विकम्) सात्विक (स्मृतम्) कहा गया है। (20)
केवल हिन्दी अनुवाद: दान देना ही कर्तव्य है ऐसे भावसे जो दान समय और स्थिति और दान देने योग्य व्यक्ति के प्राप्त होने पर उसके बदले में अपनी भलाई अर्थात् फल की इच्छा न रखते हुए दिया जाता है वह दान सात्विक कहा गया है। (20)
यत्, तु, प्रत्युपकारार्थम्, फलम्, उद्दिश्य, वा, पुनः,
दीयते, च, परिक्लिष्टम्, तत्, दानम्, राजसम्, स्मृतम्।।21।।
अनुवाद: (तु) किंतु (यत्) जो दान (प्रत्युपकारार्थम्) बदले में लाभ के लिए (वा) अथवा (पुनः) फिर (फलम्) फलके (उद्दिश्य) उदे्श्य (दीयते) दिया जाता है (च) तथा (परिक्लिष्टम्) क्लेशपूर्वक अर्थात् न चाहते हुए पर्ची काटने पर दुःखी मन से दिया जाता है (तत्) वह (दानम्) दान (राजसम्) राजस (स्मृतम्) कहा गया है। (21)
केवल हिन्दी अनुवाद: किंतु जो दान बदले में लाभ के लिए अथवा फिर फलके उदे्श्य दिया जाता है तथा क्लेशपूर्वक अर्थात् न चाहते हुए पर्ची काटने पर दुःखी मन से दिया जाता है वह दान राजस कहा गया है। (21)
अदेशकाले, यत्, दानम्, अपात्रोभ्यः, च, दीयते,
असत्कृतम्, अवज्ञातम्, तत्, तामसम्, उदाहृतम्।।22।।
अनुवाद: (यत्) जो (दानम्) दान (अवज्ञातम्) गुरु की आज्ञा का उलंघन करके (असत्कृतम्) अनादर करके (च) और (अदेशकाले) अनुचित समय स्थिति में (अपात्रोभ्यः) पूर्ण गुरु के बिना कुपात्र को (दीयते) दिया जाता है (तत्) वह दान (तामसम्) तामस (उदाहृतम्) कहा गया है। (22)
केवल हिन्दी अनुवाद: जो दान गुरु की आज्ञा का उलंघन करके अनादर करके और अनुचित समय स्थिति में पूर्ण गुरु के बिना कुपात्र को दिया जाता है वह दान तामस कहा गया है। (22) विशेष:- निम्न श्लोक 23 से 28 तक पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का विवरण कहा है तथा उसके लिए विशेष विवरण गीता अध्याय 8 श्लोक 5 से 10 व 12-13 अध्याय 4 श्लोक 34 व अध्याय 15 श्लोक1 से 4 व अध्याय 18 श्लोक 61, 62, 64, 66 में विस्तृत कहा है।
ॐ, तत्, सत्, इति, निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृृतः,
ब्राह्मणाः, तेन, वेदाः, च, यज्ञाः, च, विहिताः, पुरा।।23।।
अनुवाद: (ॐ) ॐ मन्त्र ब्रह्म का (तत्) तत् यह सांकेतिक मंत्र परब्रह्म का (सत्) सत् यह सांकेतिक मन्त्र पूर्णब्रह्म का है (इति) ऐसे यह (त्रिविधः) तीन प्रकार के (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का (निर्देशः) आदेश (स्मृतः) कहा है (च) और (पुरा) सृष्टिके आदिकालमें (ब्राह्मणाः) विद्वानों ने (तेन) उसी (वेदाः) तत्वज्ञान के आधार से वेद (च) तथा (यज्ञाः) यज्ञादि (विहिताः) रचे। उसी आधार से साधना करते थे। (23)
केवल हिन्दी अनुवाद: ॐ मन्त्र ब्रह्म का, तत् यह सांकेतिक मंत्र परब्रह्म का, सत् यह सांकेतिक मन्त्र पूर्णब्रह्म का है, ऐसे यह तीन प्रकार के पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का आदेश कहा है और सृष्टिके आदिकाल में विद्वानों ने उसी तत्वज्ञान के आधार से वेद तथा यज्ञादि रचे। उसी आधार से साधना करते थे। (23)
तस्मात्, ओम्, इति, उदाहृत्य, यज्ञदानतपःक्रियाः,
प्रवर्तन्ते, विधानोक्ताः, सततम्, ब्रह्मवादिनाम्।।24।।
अनुवाद: (तस्मात्) इसलिये (ब्रह्मवादिनाम्) भगवान की स्तुति करनेवालों तथा (विधानोक्ताः) शास्त्रविधिसे नियत क्रियाऐं बताने वालों की (यज्ञदानतपःक्रियाः) यज्ञ, दान और तप व स्मरण क्रियाएँ (सततम्) सदा (ओम्) ‘ऊँ‘ (इति) इस नामको (उदाहृत्य) उच्चारण करके ही (प्रवर्तन्ते) आरम्भ होती हैं अर्थात् तीनों नामों के जाप में ओं से ही स्वांस द्वारा प्रारम्भ किया जाता है। (24)
केवल हिन्दी अनुवाद: इसलिये भगवान की स्तुति करनेवालों तथा शास्त्रविधिसे नियत क्रियाऐं बताने वालों की यज्ञ, दान और तप व स्मरण क्रियाएँ सदा ‘ऊँ‘ इस नामको उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं अर्थात् तीनों नामों के जाप में ओं से ही स्वांस द्वारा प्रारम्भ किया जाता है। (24)
तत्, इति, अनभिसन्धाय, फलम्, यज्ञतपःक्रियाः,
दानक्रियाः, च, विविधाः, क्रियन्ते, मोक्षकाङ्क्षिभिः।।25।।
अनुवाद: (तत्) अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म के तत् मन्त्र के जाप (इति) पर स्वांस इति अर्थात् अन्त होता है तथा (फलम्) फलको (अनभिसन्धाय) न चाहकर (विविधाः) नाना प्रकारकी (यज्ञतपःक्रियाः) यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ (च) तथा (दानक्रियाः) दानरूप क्रियाएँ (मोक्षकाङ्क्षिभिः) कल्याण की इच्छावाले अर्थात् केवल जन्म-मृत्यु से पूर्ण छुटकारा चाहने वाले पुरुषोंद्वारा (क्रियन्ते) की जाती हैं अर्थात् यह तत जाप ‘‘सोहं‘‘ मन्त्र है जो परब्रह्म का जाप मन्त्र है और सतनाम के स्वांस द्वारा जाप में तत् मन्त्र पर स्वांस का इति अर्थात् अन्त होता है। (25)
केवल हिन्दी अनुवाद: अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म के तत् मन्त्र के जाप पर स्वांस इति अर्थात् अन्त होता है तथा फलको न चाहकर नाना प्रकारकी यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छावाले अर्थात् केवल जन्म-मृत्यु से पूर्ण छुटकारा चाहने वाले पुरुषोंद्वारा की जाती हैं अर्थात् यह तत जाप ‘‘सोहं‘‘ मन्त्र है जो परब्रह्म का जाप मन्त्र है और सतनाम के स्वांस द्वारा जाप में तत् मन्त्र पर स्वांस का इति अर्थात् अन्त होता है। (25)
सद्भावे, साधुभावे, च, सत्, इति, एतत्, प्रयुज्यते,
प्रशस्ते, कर्मणि, तथा, सत्, शब्दः, पार्थ, युज्यते।।26।।
अनुवाद: (सत्) ‘सत्‘ (इति) यह सारनाम तत् मन्त्र के अन्त में (एतत्) इसी पूर्ण परमात्मा के नाम के साथ (सद्भावे) सत्यभावमें (च) और (साधुभावे) श्रेष्ठभावमें (प्रयुज्यते) प्रयोग किया जाता है (तथा) तथा (पार्थ) हे पार्थ! (प्रशस्ते) उत्तम (कर्मणि) कर्ममें ही (सत् शब्दः) सत् शब्द अर्थात् सारनाम का (युज्यते) प्रयोग किया जाता है अर्थात् पूर्वोक्त दोनों मन्त्रों ओं व तत् के अन्त में जोड़ा जाता है। (26)
केवल हिन्दी अनुवाद: ‘सत्‘ यह सारनाम तत् मन्त्र के अन्त में इसी पूर्ण परमात्मा के नाम के साथ सत्यभावमें और श्रेष्ठभावमें प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्ममें ही सत् शब्द अर्थात् सारनाम का प्रयोग किया जाता है अर्थात् पूर्वोक्त दोनों मन्त्रों ओं व तत् के अन्त में जोड़ा जाता है। (26)
यज्ञे, तपसि, दाने, च, स्थितिः, सत्, इति, च, उच्यते,
कर्म, च, एव, तदर्थीयम्, सत्, इति, एव, अभिधीयते।।27।।
अनुवाद: (च) तथा (यज्ञे) यज्ञ (तपसि) तप (च) और (दाने) दानमें जो (स्थितिः) स्थिति ह (एव) भी (सत्) ‘सत्‘ (इति) इस प्रकार (उच्यते) कही जाती हे (च) और (तदर्थीयम्) उस परमात्माके लिये किए हुए (कर्म) शास्त्र अनुकूल किया भक्ति कर्म में (एव) ही वास्तव में (सत्) सत् शब्द के (इति) अन्त में कोई अन्य शब्द (अभिधीयते) तत्वदर्शी संत द्वारा कहा जाता है। जैसे सत् साहेब, सतगुरू, सत् पुरूष, सतलोक, सतनाम आदि शब्द बोले जाते हैं। (27)
केवल हिन्दी अनुवाद: तथा यज्ञ तप और दानमें जो स्थिति है भी ‘सत्‘ इस प्रकार कही जाती हे और उस परमात्माके लिये किए हुए शास्त्र अनुकूल किया भक्ति कर्म में ही वास्तव में सत् शब्द के अन्त में कोई अन्य शब्द तत्वदर्शी संत द्वारा कहा जाता है। जैसे सत् साहेब, सतगुरू, सत् पुरूष, सतलोक, सतनाम आदि शब्द बोले जाते हैं। (27)
अश्रद्धया, हुतम्, दत्तम्, तपः, तप्तम्, कृतम्, च, यत्,
असत्, इति, उच्यते, पार्थ, न, च, तत्, प्रेत्य, नो, इह।।28।।
अनुवाद: (पार्थ) हे अर्जुन! (अश्रद्धया) बिना श्रद्धा के (हुतम्) किया हुआ हवन (दत्तम्) दिया हुआ दान एवं (तप्तम्) तपा हुआ (तपः) तप (च) और (यत्) जो कुछ भी (कृतम्) किया हुआ शुभ कर्म है वह समस्त (असत्) ‘असत्‘ अर्थात् व्यर्थ है (इति) इस प्रकार (उच्यते) कहा जाता है इसलिये (तत्) वह (नो) हमारे लिए न तो (इह) इस लोकमें लाभदायक है (च) और (न) न (प्रेत्य) मरनेके बाद ही। (28)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है वह समस्त ‘असत्‘ अर्थात् व्यर्थ है इस प्रकार कहा जाता है इसलिये वह हमारे लिए न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरनेके बाद ही। (28)
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